मन्त्रविज्ञान_यंत्रमहिमा_तन्त्रयुक्ति_सर्वविद्यावर्णन_भाग 2 ....
। श्री गुरुगणेभ्यो नम:।
विशेष: - यह लेख साधकों, ऐड आध्यात्मिक-छात्रों, भक्तों और अद आध्यात्मिक जगत् में रुचि रखने वाले भगवत् प्रेमियों के लिए हि प्रस्तुत किया जा रहा हे जो की # मन्त्रविज्ञान के सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग, क्रिया व विधान को विस्तृत रूप में वर्णित किया गया है। जो की साधकों हेतु अत्यावश्यक है यद्यपि यद्यपि गुरु आज्ञा के बिना कोई साधना व क्रिया फलीभूत नहीं होती। किंतु जो गुरुमुखी हैं उनके लिए यह जानकारी निश्चित रूप से सहायक होगी।
प्रथम # सर्वमन्त्र_भूतिणी_श्रीसिद्धमातृका_भयहरिणी_विद्या की स्तुति करते है। जिनकी कृपा से मन्त्र व सिद्धियाँ सहजरूप में
प्राप्त हो जाति हे। और अविद्या दूर हो जाती है।
। श्रीसुद्महाविद्या_स्तुति:।
गणेशग्रहनक्षत्रयोगिनीराशिरूपिणीम्।
दसवीं मन्त्रमयी नौ नौ मातृकँ पीठरुपनिम् ।११ ।।
अर्थ: - गणेशरूपिणी, ग्रहापुनी, नक्षत्ररूपिणी, योगिनीरुपिणी, योगिनीरुपिणी, राशीरुपिणी, पीठरुपिणी मन्त्रमयी देवी श्रीसिद्धमहाविद्या की स्तुति करती है।
प्रणमामि महदेवीं मातृकं परमेश्वरीम्।
कालहल्लोहलोल्लोलक पूर्णशमकारिणीम् ।।२ ।।
अर्थ: - कालवेग के आक्षेप-निक्षेप से कृत जो बंधन है, उसका समूल विनाश करने वाली परमेश्वरी सिद्धमहाविद्या परमेश्वरी माताका को प्रणाम करता हूँ।
यदक्षरैकतनतेऽपिं संसिद्धे स्पर्यते नरः।
रवितरक्षणेन्दुकन्दप्रशंकरानलविष्णुभि: ।।३ ।।
जिस मातृका की एक अक्षर की भी सिद्धी प्राप्त हो जा रही है, साधक सूर्य, गरुड़, चन्द्र, कामदेव, शंकर, और विष्णु का देवींदी हो जाता है।
उस सिद्धमविद्या की में वंदना करता हूँ।
तृतीय श्लोक की "विरोधी" शब्द आने के कारण 'व्याख्या' अनिवार्य हो जाति हे। जिससे की शंका उपस्थित न हो।
# भावार्थात्मक-व्याख्या-> मदका के एक हि अक्षर की सिद्धी हो जाने पर साधक # सूर्य के समान तेजस्वी, यशस्वी, प्रभावशाली हो जाता है। # गरूड़ के समान दृष्टिपात-मात्र से विषनाश करने में समर्थ हो जाता है। # चन्द्रमा की भाँति समस्तप्राणी-वर्ग को प्रसन्नता प्रदान करने वाला अमृतमय हो जाता है। # कामदेव के समान जड़-चैतन्य सभी भूतों में विक्षोभ उत्पन्न कर अपने अधीन करने में समर्थ हो जाता है।
# शंकर के समान श्रेयस्कर, अजेय, सर्वतत्व विवेकता, कालजयी, सर्वभद्रमयी हो जाता है।) # विष्णु के समान सर्वपालक (शरणागत-पालक) मोक्ष-अधिकारी भयहीन और सर्वपूज्य हो जाता है।
यदित्यशशिज्योत्स्मण्डितं भुवनत्रयम्।
वन्दे सर्वेश्वरीं दसवीं महाश्रीसिद्धमाताक्ष् ।।४ ।।
अर्थ: - जो माताका के आह्लादकारी, संतापशास्त्रीय अक्षरसमूह द्वारा भुवनत्रय अलंकृत हैं। उन सर्वेश्वरी देवी महाश्रीसिद्धमातृका की में वन्दना करती हूँ।
यदक्षरमहासूत्रप्रोदमतेत् जगत्त्रयम्।
ब्रह्माण्ड़ादिकटाहंतं तां वन्दे सिद्धमातृच्छ्।।५ ।।
अर्थ: -जिस माताका के अक्षररूप महसूत्र द्वारा “ब्रह्माण्ड” से लेकर कटहपर्यन्त यह जगत्त्रय ग्रंथित है, उन सिद्धमातृका की में वन्दना करता हूँ।
यदेकादशमाधारं बीजं कोणत्रयोद्भवम्।
ब्रह्माण्ड़ादिकटाहन्तं जगदद्यापि दृश्यते ।।६ ।।
अर्थ: - आप मटका का एकादश अक्षर "ए" त्रिकोण से उद्भूत है।
यही है- ब्रह्माण्ड़ादि कटहंत जगत्त्रय का 'आधार-बीज'
यही जगत् में आज भी लक्षित होता है, व सर्वदा लक्षित होता है।
अकचदिततोन्नद्धपयशाक्षरगणनिम्।
ज्येष्ठांगबाहुपादाग्रामध्यसवनत्निवासिनीम् ।।ा
अर्थ: - # अ_क_च_ट_त_प_य_श- यह अष्टवर्गशती शिव के बाहुद्वय, अग्रद्वय, अग्र, मध्य में “स्वानारूपी” अष्ट मन्दिरों में निवास करने वाले श्रीसिद्धवर्णमातृका को प्रणाम करता है।
तमीकरैसोद्धारं सारात्सरं परपराम्।
प्रणमामि महादेव परमानन्दरूपिणीम् ८ ।।
अर्थ: - "ई" काराक्षरोद्धारा सभी सारों की सार परमानन्दरूपिणी श्रीसिद्धमातृका को प्रणाम करता हूँ।
अद्यापि यस्या जानन्ति न मनागपि देवताः।
केय कस्मात क्व केनेती सरूपारुस्पम ।9 ।।
अर्थ: - "अनादिकाल '' से लेकर वर्तमान-वर्तमानन्त तक जिसके स्वरूप-भावना और अरूप-भावना देवतागण भी स्वल्पमात्र नहीं जान पाए कि" ये "कौन हैं, कहाँ से उत्पन्न होते हैं, कहाँ रहते हैं, किसके साथ रहते हैं? आप आप खोज के लिए भी देवी श्रीसिद्धमातृका को प्रणाम करते हैं।
वन्दे तमहमक्षय्यमकारक्षररूपिणीम्।
दसवीं कुलकोल्लोलोपोल्लसन्तीं परं शिवाम् ।।१० ।।
अर्थ: - 'क्षेत्र' कार रूपा क्षयरहिता "अ" कारा पूर्णाराक्षरा, 'कुलाविक' के उल्लोल से प्रोल्लसिता श्रीसिद्धमातृका परादेवी शिवा की वन्दना करता हूँ।
वर्गानुक्रमयोगेण यस्यां श्रष्टकंठम्।
वन्दे तमस्तवर्गोत्थाम् शास्त्रध्यत्केश्वरीम्।।११ ।।
अर्थ: - माताका के अष्टवर्ग # अ_क_च_त_त_प_य_श में अष्टमातृका स्वरूप —वशिनी-कामेश-मोहिनी (मोहिनी) -विमला-अरुण-जयनी-सर्वेशी-कौलिनी। में अवस्थिता अष्टवर्गोत्तिथा अमानीम अष्टसिद्धी की अधीश्वरी श्रीसिद्धमातृका महादेवी की वन्दना करता हूँ।
कामपूर्णजाराध्याश्रीपीठान्तर्निवासिनीम्।
चतुरा बुद्धिकोशभूतां नौमि श्रीत्रिपुरामहम् ।।१२ ।।
अर्थ: - कामरूप, पूर्णगिरि, जालन्धर और उड्डियानुरुपी चतु: पीठनिवासिनी चतुराज्ञा कोषभूता श्रीसिद्धमातृका महाविद्या महात्रिपुरा के श्रीचरणों को प्रणाम करता है।
इस स्तुति को प्रत्येक साधक को अवश्य करना चाहिए।
इससे वर्णमातृका पसन्न होकर मन्त्रजागृति की कृपा करती है।
साधक-उपासक को सद् हि गुरुवर्त्त मंत्रों का विधिवत पुरश्चरण का अनुष्ठान अवश्य ही करना।
जीवो हीनो यथा देह: सर्वकर्मसु न क्षम :।
पुरश्चरणहीन और मन्त्र: प्रकीर्तित: ।।
अर्थ: - जैसे आत्मा से विहीन यह शरीर किसी भी कर्म को करने में असमर्थ होता है।
उसी प्रकार पुरश्चरण हीन मन्त्र भी फल प्रदान करने में असमर्थ हो जाता है।
# पुरश्चरण_कब_ और_कैसे_करें?
चन्द्रताराेनुकूले च शुक्लपक्षे विशेषतः।
पुरश्चरणक कुर्यान्मन्त्रसिद्धिः प्रजायते।
स्वस्तिवाचनकं कुर्यान्नंगदिशादधं यथा विधि: ।।
अर्भ दिनमारभ्य समापनदिवसावधि।
न छोटं नातिरिक्तं च जपं कुर्यद्दिनेदिने ।। (म.महा।)
अर्थ: - चन्द्रतारा के अनुकूल होने वाले विशेष रुपेण शुक्लपक्ष में पुरश्चरण प्रारम्भ करना चाहिए। यह मन्त्रसिद्धी में सहायक होता है। आरम्भ में स्वस्तिवाचन व नान्दी श्राद्ध भी विधिपूर्वक करना चाहिए।
जप आरम्भ करने के दिन से लेकर समाप्ति के दिन तक मन्त्र का जप समान होना चाहिए। जप की संख्या किसी भी दिन न तो कम हो न हि अधिक।
(गुरुपरम्परा मत सम्प्रदाय विद्या या साधना के आधार पर मन्त्र विविधताी के भिन्न होने पर इसमें परिवर्तन हो सकता है-यह गुरुआज्ञा के अनुसार करें)
मंत्रों के नाम का वर्णन ।।
• १ • ॐ प्रणव है। यह स्वयमेव हि पूर्ण है # ब्रह्मसूचक।
विभिन्न मतों में सिद्धों नें मायाबीज (शक्तिबीज) को भी "प्रणव" की उपमा दी गई है। प्रणव और माया दोनों हि सर्व नेताओं-उत्कीलक कहे गए हैं।
• 2 • # एकाक्षरी को बीजमन्त्र कहा जाता है।
(तांत्रिक-मतों में भी भिन्नता पाई जाती है)
• ३ • दो से बीस अक्षरों के मंत्रों को अर्णवमन्त्र और अक्षीय लक्षण कहा जाता है।
जैसे "पंचाक्षरी", "नवार्ण", "दस्मशाक्षरी" और "विंशक्षक्षरी।"
विष्णत्यर्नाधिका: मन्त्र: ग्रंथिसा: प्रकीर्तित:।
बीस वर्ण (अक्षर) से निन्यानवे वर्ण वाला मन्त्रभूमि मन्त्र कहा जाता है।
पुनः सौ से सहस्त्र के चरित्र वाले मंत्रों को मालारीयक्षरीय महामन्त्र कहा जाता है, उसी के मध्य "युगाक्षरमंत्र" इत्यादि मन्त्रों का समाविष्ट है।
सहस्त्राऽधिक से दशसहस्त्रा पूर्वक्षर से पूर्व को कल्पमन्त्र कहा जाता है।
दशसहस्त्रों के मन्त्र को आयुताक्षरमन्त्र ने कहा है।
इसका अंतर नहीं यह परावर्त कारण-कारक है।
इनसे अधिक अक्षरमन्त्रों का जप पूर्वकाल में केवल दीर्घयुओं के द्वारा हि किया गया है। आज के युग में कद अन्य सम्भव प्रतीत नहीं होता।
यथा सभी मंत्रों के आदिसृष्ट भगवानशिव हि हैं।
वैसे ही हिल्स गुरु को शिवस्वरूप जानकारी स्वहितार्थ प्रदत्त मन्त्र का सिरता हि जानें।
योग्य गुरु स्वयं के मन में परिक्षार्थ सन्देह की सृष्टि करते हैं (भ्रम, ईर्ष्या, संदेह)।
यदि चेलों की मती मलीनता को प्राप्त न कर शुद्ध हि बनी रही वह आशीर्वादी अवश्य अवश्य हिमगुरूकृपापात्र हो जाती है।
गुरु के प्रसन्न होने शक्तिपात द्वारा शिष्य सदा के लिए अनुग्रहित होकर सर्वत्र पूज्य हो जाता है।
यह भगवान शिव के वाक्य हैं।
मन्त्र भी गुरुमूर्ति हि जानें।
यथा देवे और मन्त्रे यथा मन्त्रे और गुरौ।
यथा गुरौ और स्वात्मन्येवं भक्तिक्रम: प्रिये ।।
भगवान शिव कहते हैं।
हे प्रिये पार्वती! साधनाकाल में शिष्य को यह धारणा करनी चाहिए की ”- जैसे देव हैं वैसे मन्त्र हैं। जैसा मन्त्र है उसी हि गुरुदेव हैं। जैसे गुरुदेव हैं वैसा हि में हूँ, अर्थात् देवता, मन्त्र, गुरु ओर शिष्य में कोई अन्तर नहीं है। चारों नाम तो भिन्न-भिन्न हैं वस्तुतः एक श्याम हि हैं।
शिष्य (सफाई कर्मचारी) विशेष सावधानी :::::
असत्यं न वदेदग्रे न बहु: प्रलपदेपि।
कामं स्वभाव और लोभं मानं प्रहसनं स्तुतिम् ।।
न कुर्याद् गुरूणा सार्धांस्यो भू विष्णु: क्षिपे।
यतो गुरु: शिव: अनुभवी दत्त स्तुवन् प्रणमं भजेत् ।।
सिद्धी (काल) के इच्छुक, गुरु से और गुरु के समक्ष कद अन्य असत्य भाषण न करें। न हि अधिक बोलें।
काम, स्वभाव, लोभ, मान, प्रहसन, चपलता, स्वमहिमंदन, अनर्गलवार्ता, न करें। क्यूँ की चेलों के लिए गुरु हि अनुभवी शिव होते हैं। उनकी वंदना करनी चाहिए उन्हें प्रणाम करना चाहिए और सदैव एम्पगुरूदेव की सेवा में तत्पर रहना चाहिए उसी के द्वारा प्रदत्त मन्त्रों के बारे में जप करना चाहिए।
# मन्त्रों_का_स्वरूप_निर्णय ...
• १ • सिद्ध- सिद्धमन्त्र जप की निर्धारित संख्या में जप करने से सिद्ध होता है।
• २ • यूसिद्ध- यूसिद्धमन्त्र निर्धारित संख्या से आधे जप से सिद्ध हो जाता है।
• ३ • सिद्धारि-सिद्धारिमन्त्र तस्य्य होता है, क्यूँ की यह बंधनव नाशक होता है।
• ४ • साध्यसिद्ध- साध्यसिद्धमन्त्र निर्धारित संख्या से दुगने जप से सिद्ध होता है।
• ५ • साध्य-साध्य- साध्य-सा लिंगन्त्र निरर्थक होता है अनेकों पुरश्चरण पर भी नहीं होता।
• इ • • साध्यसुसिद्ध- साध्यसुसिद्धमन्त्र का दुगना जप करें।
• • • साध्यारि- साध्यारिमंत्र तत्र्य है यह गौत्रगुण नाशक होता है।
• • • यूसिद्धसिद्ध- यूसिद्धसिद्धमन्त्र मध्य संख्या में सिद्ध हो जाता है।
• ९ • यूसिद्धसाध्य- यूसिद्धसा एंडन्त्र की दुगनी संख्या जप से।
• १० • यूसिद्धसुसिद्ध- यूसिद्धसुसिद्धमन्त्र केवल दीक्षामात्र से सिद्ध हो जाता है-किंतु इसकी प्राप्ति गुरुकृपा पर निर्भर करती है।
• ११ • यूसिद्धारि- यूसिद्धारिमन्त्र तस्य्य है यह कुतुम्ब का नाशक होता है।
• १२ • अरिसिद्ध- अरिसग्नमन्त्र जप से पुत्र का नाश होता है।
• १३ • अरिसाध्य- अरिसा चंद्रन्त्र से कन्या का नाश होता है।
• १४ • अरिसुसिद्ध- अरिसुसिद्धमन्त्र पत्नीनाशक होता है।
• १५ • अरिअरि- अरिअरिमन्त्र स्वयं साधक की मृत्यु (अकाल-मृत्यु) करने वाला हे।
सभी साधक इनका भलीभाँति विचार कर हि मन्त्रजप करें।
# सापर_ऋणी_मन्त्र सर्वदा शुभकारी व तत्क्षण सिद्धी प्रद कहे गए हैं।
पूर्वजन्मकृताभ्यासे पापादस्याफलाप्तिकृत्।
पापे नष्टे फलावाप्ति: काले देहक्षयत्ऋणी।
मन्त्र: संबं क्षत्रंतेन प्राक्तन: सिद्धये भवेत् ।।
अर्थ: - पूर्वजन्म में किए गए जप का फल पापों के कारण नहीं मिलता है। पाप के नष्ट हो जाने पर फल प्राप्त होता है, पूर्वजन्म में साधक की आयुपूर्ण होने पर देहंत होता है, तो किए गए जप साधक के ऋणी हो जाते हैं।
सद्गुरु द्वारा मन्त्र प्राप्त होते ही पूर्व जप फलित हो जाता है।
शीघ्र सिद्धी प्राप्त हो जाती है।
# किंतु ... प्राप्ति गुरुमुख से होनी चाहिए।
सिद्धान्तों गुरोर् परा मंत्रो यः सिद्धिभाड्नरः।
लक्ष्मीमदनादारण मन्त्रे भोगमवाप्तवान् ।।
सन्मन्त्रस्य ऋणीयन्ययो भतान तस्य पूर्वगम्।
तस्मात् ऋण: विशुद्धिस्त्या कार्या सर्वैश्च सर्वदा ।।
अर्थ: - गुरु से प्राप्त मन्त्र के जप से हि सिद्धि प्राप्त होती है। मनुष्य सिद्ध हो जाता है। लक्ष्मीक्ष्मी जी की कृपा से साधक को भावनाओं और मन्त्र से भोगों की प्राप्ति होती है।
गुरुपूर्णत्त सत् मंत्रों को ऋणी जानकर जप करना चाहिए। विशुद्ध ऋणी मन्त्रों से सभी कार्य अनुक्रम होते हैं। साधकों को मन्त्रों के ऋणी-धनी विचार कर जप करना चाहिए।
# मन्त्र_स्वभाव_गुण_तदुपरान्त_अक्षमाला_निर्णय .......
रुद्राक्षैरपि पद्मक्षै: पुत्रजीव: कुचन्दनै:।
स्ताटिकैश्च प्रवलम्श्च मौक्तिकैर्हेम निर्मितैः ।।
राजतैर्जपला संकेतत् पूर्वं फलेद्गुरुः।
आदिक्षतीनारसैः छायादक्षला यथार्थत: ।।
अर्थ: - सभी मालिकाओं में व सर्वऽुष्ठान में # रुद्राक्ष माला का प्रथम स्थान है। # रुद्राक्षमालिका का प्रत्येक देव-देव जप में उत्कृष्ट माना गया है।
रुद्राक्ष से कम फलद # पद्मबीजमालिका (कमलगट्टे) की माला का प्रभाव होता है।
पद्मबीज से कम # पुत्रजीवमाला (गोफल) का महत्व है।
पुत्रिव से कम # रक्तचंदनमालिका का महत्व है।
रक्तचन्दन से कम # स्फटिकमालिका का महत्व है।
स्फटिक से कम # प्रवालमालिका (मूंगे) का महत्व है।
मूंगे से कम # मौक्तिकमालिका (मोती) का महत्व है।
मोती से कम # स्वर्णमालिका सोने का महत्व है।
सोने से कम # राजामालिका का महत्व है।
# करमाला और अन्य भी कई # अक्षमालाओं में भिन्न-भिन्न साधनाओं में अपना स्वयं का विशेष महत्व होता है।
सबका वर्णन सम्भव नहीं।
# मन्त्रविज्ञान व उनकी महिमा अप्रमेय, अवर्णनीय व अपरम्पार है।
जैसा लेखन चाहे करें न तो पूर्णता हो पाती है, न हि तृप्ति।
पुनः प्रतीत होता है कि हे के लेख को पूर्ण कर पाना दोषकर होगा।
कुछ मुख्य विषयों का उल्लेख कर विश्राम पश्चात पुनः # तृतीय श्रेणी के द्वारा उपरोक्त विषय की पूर्णता होगी।
.. षट्कर्म हेतु अनिवार्य छःविन्यास ।।
आदौ योगो भवेदन्ते पल्लव: सम्पुटो द्ययो:।
वनारनं तु ग्रन्थनं विदर्भोद्वयन्त्रकृतः ।।
• १ • नाम के आगे मन्त्र लगाने को # योग कहता है।
• २ • मन्त्र के बाद मन्त्र लगाने को # पल्लव कहते हैं।
• ३ • नाम के पूर्व ओर अंत में मन्त्र लगाने को # सम्पुट कहते हैं।
• ४ • मन्त्र के एक अक्षर के बाद नाम का एक अक्षर, पुनः मन्त्र का एक अक्षर और पुनः नाम का एक अक्षर के विन्यास को # ग्रंथन कहते हैं।
• ५ • विदर्भ-प्रारम्भ में मन्त्र के दो अक्षर फिर नाम का एक अक्षर इस प्रकार बारम्बार मन्त्र और नाम के अक्षर के विन्यास को # विदर्भ कहते हैं।
• आइए • बोधन-नाम के आड़िए मध्य और अंतर में मन्त्र लगाने को बोधन कहते हैं।
मन्त्रदोष जानकर उसका निराकरण करें।
अन्यथा # गुरु_ऋषि दोनों का शीघ्रमरण हो जाता है।
.. मन्त्रों के २५ दोष ।।
• १ • # दग्ध- मन्त्रक्षरों के अतिरिक्त वर्ण "यो, ई, या, यो" लगाकर उच्चारण करना।
• २ • # त्रस्त- उपदिषत मन्त्र के साथ अन्य देवों के मन्त्र का जप करना।
• ३ • # अभिहित- जो मन्त्र विधिवत् प्राप्त न हो।
• ४ • # शत्रु- सिद्धादि चक्र के अनुसार वैरिमन्त्र का जप।
• ५ • # बाला- औंस के समय के साथ के ह्रस्व का उच्चारण करना।
• आइए • # निर्जिता- साधक के पूर्व जन्म के दुखों की
दबदबा होना
• • • # वृद्ध- ह्रस्व के स्थान पर दीर्घकालीन करना।
• • • # अंहसा- मन्त्रक्षरों में 'हकार और' स'कार का न होना।
• ९ • # सत्वविजिता- बलहीन मन्त्र का जप करना।
• १० • # अपूर्ण_रूपा- जप के समयकाल वाचन करना।
• ११ • # छिन्ना- सर्वव विहीन देशनार का प्रभाव।
• १२ • # स्तम्भिता- गुरूमत के विपरीत साधक का अपना अभिमत जोड़ना।
• १३ • # सानुनासिका- नकारादि के साथ उच्चारण।
• १४ • # सुप्तमन्त्र- अकालविनियोगेन प्रबोध स्वापगा जप। (प्रत्य नासा प्रवाह के बिना मन्त्रजप सुप्तमन्त्र कहा गया है)
• १५ • # मत्ता: - पुस्तक में बिना गुरु उपदेश के मन्त्र जप को देखकर।
• १६ • # रुख_निवारिता- सन्धिविहीन बिना जप।
• १ • • # कीलिता- मन्त्र ओर साधक के नाम-साम्य या विचारे बिना मन्त्र का जप।
• १ • • # प्राप्तु: खा- गुरुपश्च मन्त्र के साथ अन्य देवता का मन्त्रजप या सिद्धु चक्र।
• १ ९ • # खण्डीभूता- न्यासादि के बिना मन्त्र जप।
• २० • # हीनवीर- विधिवत जिसका उपदेश न हो।
• २१ • २ # कुण्ठित_अकार्यकरत्व –सिद्ध भी विनियोग विनियोग विहीनता के बिना अकार्यकारी कुणठित हि हो जाता है।
• २२ • # क्लिष्टता- मन्त्रावर्तन में विलम्ब से उच्चारण।
• २३ • # रुग्ण: - प्रताप, अयोग्य, आलापपूर्वक जप।
• २४ • # उपेक्षा- मन्त्र परित्याग करना। गुरपक्षी कल्प के साथ अपना मत सहित जपना।
• २५ • # वैषम्यता- मन्त्र देवता के जप-पूजा में विषमता।
ये २५ दोषों का निवारण केवल गुरु जी कर सकते हैं।
दोषों मुक्त मंत्र का जप हि सिद्धिप्रद होता है।
भाग क्र .3 में साफ करने वाला सम्पूर्ण
न्यास, मुद्रा, नियम, आसन, शुद्धि, कला, जप विधि और सभी विधान के साथ उपरोक्त विषय की सम्पूर्णता / प्रयास होगा।
आगे श्री_बलवती की इच्छा__
# साधकों_हेतु_सप्रेम_समर्पित ।।
# जयति_ब्रह्मास्त्रविद्या ___